garib

रोटियां 3 दिन पुरानी थीं,
और भूख 4 दिन…

वो गरीब बड़े आराम से खा गया…
क्योंकि रोटी भूख के मुकाबले ताज़ी थी..”

“रोटी “
एक रोटी के लिये बिचारा
दिन रात वो मेहनत कर आया
जब शाम ढली…सूरज डूबा
थक हार वो लौटा घर आया

बच्चे आँख लगाये बैठे थे
पापा कुछ खाना लाएंगे
चार दिनों से नहीं खाया
हम आज अवश्य कुछ खाएंगे

पत्नी बच्चो को बहलाकर
घर की दशा बताती है
देकर आश्वासन खाने का
बिन खाने ही उनको सुलाती है

बच्चे जब भूखे सो जाते
माँ बिलख बिलख कर रोती है
कोस कोस खुद की किस्मत
आँखे अश्को से भिगोती है।

terrified

आज फिर वही शाम ढलने आयी
बच्चे कुछ खाना चाहते थे
अंदर जलती उस इच्छा को
रोटी से मिटाना चाहते थे।

देख झलक उस थैली की
आँखे उनकी चमक उठी
दृश्य देख लाचार माँ की
आँखे ख़ुशी से छलक पड़ी।

उसमे थे रोटी के कुछ टुकड़े
जो मांग किसी से लाया था
रोटी सुखी चाहे हो भले,
मन फुला नहीं समाया था।

रोटी के उन् टुकड़ो को
वो बड़े चाव से खाने लगे
अंदर जलती उस अग्नि को
उन् टुकड़ो से वो मिटाने लगे

हम कितने भाग्य के धनी है जो
दो वक़्त की रोटी खा पाते है।
उन् जैसे कितने अभागे है जो
कई दिन भूखे सो जाते है।

लो प्रण, नियम या बाधा ऐसी
न व्यर्थ करो तुम खाने को
जब कभी मिले मौका ऐसा,
बिन-झिझक बढ़ो तुम खिलाने को।

– प्रितेश ( PBM )